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अ॒ग्निर्हि वा॒जिनं॑ वि॒शे ददा॑ति वि॒श्वच॑र्षणिः। अ॒ग्नी रा॒ये स्वा॒भुवं॒ स प्री॒तो या॑ति॒ वार्य॒मिषं॑ स्तो॒तृभ्य॒ आ भ॑र ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

agnir hi vājinaṁ viśe dadāti viśvacarṣaṇiḥ | agnī rāye svābhuvaṁ sa prīto yāti vāryam iṣaṁ stotṛbhya ā bhara ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒ग्निः। हि। वा॒जिन॑म्। वि॒शे। ददा॑ति। वि॒श्वऽच॑र्षणिः। अ॒ग्निः। रा॒ये। सु॒ऽआ॒भुव॑म्। सः। प्री॒तः। या॒ति॒। वार्य॑म्। इष॑म्। स्तो॒तृऽभ्यः॑। आ। भ॒र॒ ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:6» मन्त्र:3 | अष्टक:3» अध्याय:8» वर्ग:22» मन्त्र:3 | मण्डल:5» अनुवाक:1» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर अग्निविषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! जो (विश्वचर्षणिः) संसार का प्रकाश करनेवाला (अग्निः) अग्नि (हि) जिससे (विशे) प्रजा के लिये (वाजिनम्) बहुत वेगवाले को (ददाति) देता है और जो (अग्निः) अग्नि (राये) धन के लिये (स्वाभुवम्) स्वयं उत्पन्न होनेवाले को (याति) प्राप्त होता है, उस विद्या से (सः) वह आप (प्रीतः) कामना किये गये (स्तोतृभ्यः) स्तुति करनेवालों के लिये (वार्यम्) स्वीकार करने योग्य (इषम्) अन्न आदि का (आ, भर) धारण कीजिये ॥३॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! अग्नि ही उत्तम प्रकार साधित किया गया सुख देनेवाला होता है, जिससे आप लोग ऐश्वर्य की वृद्धि करो ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरग्निविषयमाह

अन्वय:

हे विद्वन् ! यो विश्वचर्षणिरग्निर्हि विशो वाजिनं ददाति योऽग्नी राये स्वाभुवं याति तद्विद्यया सः प्रीतः स्तोतृभ्यो वार्यमिषमा भर ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्निः) पावकः (हि) यतः (वाजिनम्) बहुवेगवन्तम् (विशे) प्रजायै (ददाति) (विश्वचर्षणिः) विश्वप्रकाशकः (अग्निः) (राये) धनाय (स्वाभुवम्) यः स्वयमाभवति तम् (सः) (प्रीतः) कमितः (याति) (वार्यम्) वरणीयम् (इषम्) अन्नादिकम् (स्तोतृभ्यः) (आ) (भर) ॥३॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! अग्निरेव सुसाधितः सन् सुखप्रदो भवति येन भवन्त ऐश्वर्यमुन्नयन्तु ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! उत्तम प्रकारे उपयोगात येणारा अग्नी सुख देणारा असतो त्याच्याद्वारेच तुम्ही उन्नती करा ॥ ३ ॥